दम साधे दबे पाँव
तीसरे पहर रात का सिराता अन्धेरा
और सन्नाटा
सन्नाटे और अन्धेरे को थाह-थाह
दबे पाँव चलता हूँ मैं
सोयी हैं बेसुध... पत्नी और बेटियाँ
धीरे-से टटोलता हूँ घड़ा
और गिर पड़ता है झन्न से ग्लास
घबरा कर जागती है धरती
और नदियाँ
बारी-बारी से कोसकर सब सो जाती हैं।
इसी तरह, ठीक
दम साधे दबे पाँव, मैं
गुज़र जाना चाहता हूँ इस दुनिया से
लेकिन हो ही जाती है
कोई न कोई आहट
और यह दुनिया
झल्ला उठती है मुझ पर
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बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद सर
हटाएंबहुत सुंदर ... गहन रचना
जवाब देंहटाएंसादर
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-04-2019) को "यन्त्र-तन्त्र का मन्त्र" (चर्चा अंक-3301) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद
हटाएंबहुत खूब लिखा है आपने!!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ..इतना उम्दा लिखने के लिए !