ऐसा लगता है ज़िन्दगी तुम हो
अजनबी जैसे अजनबी तुम हो।
अब कोई आरज़ू नहीं बाकी
जुस्तजू मेरी आख़िरी तुम हो।
मैं ज़मीं पर घना अँधेरा हूँ
आसमानों की चांदनी तुम हो।
दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें
किस ज़माने के आदमी तुम हो।
---------------------
बशीर बद्र
साभार: कविता कोश
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-06-2019) को "पितृत्व की छाँव" (चर्चा अंक- 3369) (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
पिता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा में स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद।
हटाएंवाह !बेहतरीन 👌
जवाब देंहटाएंसादर
सादर धन्यवाद
हटाएं