कभी हम सौदा-ए-बाज़ार हुए
कभी हम आदमी बीमार हुए
और जो रहा बाकी बचा-खुचा
उसके कई तलबगार हुए॥
सितम भी यहाँ ढाए जाते हैं
रहनुमाई की तरह
पैर काबे में है
अजब कशमकश है
दोनों जानिब मेरे
एक आसमान की बुलंदी की तरफ
तो दूसरा जमीन की गहराई है॥
इबादतगाह तक मैं जाता नहीं
और खुदा कहीं मिलता नहीं
थक गया हूँ भागते-भागते मैं
कि घर तक रौशनी आई है॥
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राजीव उपाध्याय
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23 -06-2019) को "आप अच्छे हो" (चर्चा अंक- 3375) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
चर्चा में स्थान देने के लिए सादर धन्यवाद।
हटाएंउम्दा //बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद
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