घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे।
इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।
शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्ते
हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे।
पहले हर चीज़ नज़र आएगी बे-मा'नी सी
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे।
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निदा फ़ाज़ली
वाह वाह वाह
जवाब देंहटाएंऐसी रचना पढ़कर मन बाग़ बाग़ हो जाता है.
आपका आभार.
सादर धन्यवाद।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-08-2019) को "रिसता नासूर" (चर्चा अंक- 3422) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद सर।
हटाएंवाह, बेहद उम्दा
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
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